Pipplad, पिप्पलाद ऋषि की कहानी
पिप्पलाद की कहानी Pipplad ki kahani
वृत्तासुर का आतंक Viritasur ka atank
वृतासुर स्वर्ग पर आक्रमण कर सभी देवताओं को हरा दिया। सभी देवता स्वर्ग छोड़ कर भाग गए। उनके पास कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं था जिससे वृत्तासुर का नाश हो। देवराज इन्द्र बहुत दुखी और चिंतित थे। उन्होंने भगवान की आराधना की । भगवान ने देवराज इन्द्र को बताया कि महर्षि दधीचि की हड्डियों से विश्वकर्मा जी वज्र बनावे तो उस वज्र से वृतासुर को मारा जा सकता है।
Maharshi Dadhichi महर्षि दधीचि
महर्षि दधीचि महा तपस्वी ऋषि थे। उनकी तपस्या के प्रभाव से सारे जीव जंतु तथा पेड़ पौधे उनकी बात मानते थे। ऐसे महान तपस्वी को देवता मार तो नहीं सकते थे, केवल याचना ही कर सकते थे। इसलिए देवताओं ने महर्षि दधीचि की आराधना करके उनकी हड्डियां मांगी।
महर्षि दधीचि ने कहा ,-- यह शरीर तो एक दिन नष्ट ही होगा, क्योंकि एक न एक दिन मरना सबको है। यह शरीर किसी का उपकार करने में नष्ट हो, इससे अच्छा भला क्या हो सकता है। मैं योगबल से अपना शरीर त्याग रहा हूं, आप लोग हड्डियां ले लें।
महर्षि दधीचि ने योग से शरीर छोड़ दिया। उनकी हड्डियों से विश्वकर्मा जी ने वज्र बनाया और उस वज्र से वृतासुर मारा गया। इस तरह स्वर्ग पर देवताओं का पुनः अधिकार हो गया।
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पिप्पलाद के माता-पिता
महर्षि दधीचि की पत्नी का नाम प्रतिथेयी था। इनके एक पुत्र थे, नाम था पिप्पलाद। वे केवल पीपल का फल ( गोदा ) खाकर रहते थे। इसलिए इनका नाम पड़ा पिप्पलाद। पिप्पलाद ने जब सुना कि देवताओं ने उनके पिता जी से हड्डियां मांगी और देवताओं को हड्डियां देने के कारण उनकी मृत्यु हुई तो उनको देवताओं पर बड़ क्रोध आया। उन्होंने देवताओं से बदला लेने का विचार किया।
पिप्पलाद का देवताओं से बदला
पिप्पलाद देवताओं से बदला लेने के लिए भगवान शंकर की तपस्या करने लगे। लंबी तपस्या के बाद भगवान शंकरजी प्रकट हुए और पिप्पलाद को वरदान मांगने को कहा। पिप्पलाद ने कहा कि आप मुझे ऐसी शक्ति दे जिससे मैं अपने पिता को मारने वाले को नष्ट कर सकूं।
शंकर जी ने एक बड़ा भयानक राक्षसी उत्पन्न करके पिप्पलाद को दे दिया और कहा कि इससे जो कहोगे यह वही करेगी। इतना कहकर शंकर जी अंतर्ध्यान हो गए।
राक्षसी ने पिप्पलाद से कहा, अब मेरे लिए क्या आज्ञा है। पिप्पलाद ने कहा , तुम सारे देवताओं को निगल जाओ। उन्हें नष्ट कर दो।
राक्षसी पिप्पलाद को निगलने के लिए दौड़ी। पिप्पलाद डर गये। उन्होंने राक्षसी से पूछा, मुझे क्यों खाने आती हो ? राक्षसी ने कहा, सभी जीवों के अंगों में उस अंग के देवता निवास करते हैं। जैसे नेत्रों में सूर्य, हाथों में इंद्र, जीभ में वरुण। इसी प्रकार दूसरे देवताओं का भी दूसरे दूसरे अंगों में निवास होता है। स्वर्ग के देवता तो बहुत दूर हैं पहले जो मेरे पास है उन्हें तो खा लूं। मेरे सबसे निकट तो तुम ही हो। इसलिए मैं सबसे पहले तुम ही को खा लूंगी।
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पिप्पलाद भागते - भागते शंकर जी के पास पहुंचे। उनसे अपनी व्यथा कही। शंकर जी ने पिप्पलाद को समझाया, -- बेटा ! क्रोध बहुत बुरा होता है। क्रोध के वश में होने से पाप होने लगता है । देखो, मैं यदि इस राक्षसी को तुम्हें खाने से रोक दूं तो यह दूसरे सब्जियों को खा जाएगी तुम्हें ही सारे संसार को मारने का पाप लगेगा। मान लो कि यह स्वर्ग के देवताओं को है मार डाले तो भी सारे संसार का विनाश हो जाएगा। आंखों के देवता सूर्य हैं। सूर्य न रहेंगे तो सब लोग अंधे हो जाएंगे। हाथ के देवता इंद्र है, यदि इंद्र नहीं रहे तो कोई हाथ हिला नहीं सकेगा। इसी प्रकार जिस अंग के जो देवता हैं , उस देवता की शक्ति से ही जीवो के अंग काम करते हैं।, यदि देवता ना रहेंगे तो तुम्हारा भी कोई अंग काम नहीं करेगा। इसलिए तुम देवताओं पर क्रोध मत करो। देवताओं ने तुम्हारे पिता से उनकी हड्डियां भिक्षा में मांगी थी। तुम्हारे पिता इतने बड़े दानी और उपकारी थे कि उन्होंने खुशी खुशी अपने हड्डियों को जन कल्याण के लिए दान कर दिया। तुम इतने बड़े महात्मा के पुत्र हो। अपने पिता के सामने भिखारी बनने वालों पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए
भगवान शंकर का उपदेश सुनकर पिप्पलाद का क्रोध दूर हो गया। उन्होंने कहा, भगवान! आपकी आज्ञा मानकर मैं देवताओं को क्षमा करता हूं। इस तरह पिप्पलाद ने देवताओं को क्षमा कर दिया। राक्षसी भी वापस चली गई।
शंकर जी ने प्रसन्न होकर पिप्पलाद को वरदान दिया की वह जहां तपस्या करते थे वह स्थान पिप्लतीर्थ हो जाएगा उस तीर्थ पर जो स्नान करेंगे वह सब पापों से छुटकारा पाकर भगवान के धाम जाएंगे।
पिप्पलाद की इच्छा अपने पिता महर्षि दधीचि का दर्शन करने की थी। देवताओं की प्रार्थना से ऋषियों के लोक से महर्षि दधीचि और पिप्पलाद की माता प्रातिथेयी जी विमान में बैठकर वहां आए और उन्होंने पिप्पलाद को आशीर्वाद दिया।
पिप्पलाद आगे चलकर बड़े विद्वान और ब्रह्मर्षि हुए। इनका वर्णन प्रश्नोपनिषद् और शिव पुराण में मिलता है।
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