Udbodhan, Bhart - Bharti उद्बोधन कविता, मैथिली शरण गुप्त
उद्बोधन कविता , मैथिली शरण गुप्त, भारत भारती कक्षा सात
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उद्बोधन कविता udbodhan poem
संसार की समर स्थली में धीरता धारण करो,
संसार की समर स्थली में धीरता धारण करो
चलते हुए निज इष्ट पथ में संकटों से मत डरो
जीते हुए भी मृतक सम रहकर न केवल दिन भरो,
वर वीर बनकर आप अपनी विघ्न - बाधाएं हरो।।
बैठे हुए हो व्यर्थ क्यों ? आगे बढ़ो , ऊंचे चढो,
है भाग्य की क्या भावना ? अब पाठ पौरूष का पढ़ो।
हैं सामने का ग्रास भी मुख में स्वयं जाता नहीं,
हा ! ध्यान उद्यम का तुम्हें तो कभी भी आता नहीं।।
रखो परस्पर मेल मन से छोड़कर अविवेकता
मन का मिलन ही मिलन है , होती उसी से एकता।
तन मात्र के ही मेल से मन भला मिलता कहीं,
है बाह्य बातों से कभी अंतः करण खिलता नहीं।।
जड़ दीप तो देकर हमें आलोक जलता आप है
पर एक हममें दूसरे को दे रहा संताप है।
क्या हम जड़ों से भी जगत में है गये बीते नहीं ?
हे भाईयों ! इस भांति तो तुम थे कभी जीते नहीं।।
हमको समय को देखकर ही नित्य चलना चाहिए,
बदले हवा जब जिस तरह हमको बदलना चाहिए।
विपरीत विश्व प्रवाह के निज नाव जा सकती नहीं,
अब पूर्व की बातें सभी प्रस्ताव पा सकती नहीं।।
है बदलता रहता समय, उसकी सभी बातें नयी,
कल काम में आती नहीं है आज की बातें कई।
है सिद्धि- मूल यही कि जब जैसा प्रकृति का रंग हो --
तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य - कृति का ढंग हो।।
प्राचीन हो कि नवीन छोड़ो रूढ़ियां जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भलीं है, यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहां वैसी व्यवस्था ठीक है।।
सर्वत्र एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,
देखो, दिनों दिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है।
अब तो उठो , क्या पड़ रहे हो व्यर्थ सोच - विचार में,
सुख दूर , जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार में।।
मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता उद्बोधन का मूल भाव , main theme of the poem udbodhan
उद्बोधन कविता सुप्रसिद्ध राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित भारत भारती पुस्तक का अंश है। इसकी रचना उस समय हुई थी जब हमारा देश भारत परतंत्र था। इस कविता के द्वारा कवि देशवासियों को विज्ञान की आविष्कारों और नये ज्ञान को अपनाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है।उनका कहना है कि जीवन एक युद्ध है और इसमें जो निराश हुआ कि हार गया। इसलिए पूरे जोश के साथ विकास पथ पर आगे बढ़ो।
शब्दार्थ
समरस्थली - युद्ध भूमि। धीरता - धैर्य, । निज -- अपना। पथ - रास्ता। वर - श्रेष्ठ। हरो - दूर करो। व्यर्थ - बेकार। भाग्य -- किस्मत। पौरूष - पुरूषार्थ।
उद्यम - परिश्रम।तन - शरीर। अंतः करण - हृदय। आलोक - प्रकाश। जड़ - बेजान। संताप - कष्ट। जगत - संसार। विपरीत - उल्टा। निज - अपना। अवस्था - हालत।विवेकी - बुद्धिमान।
उद्बोधन कविता का भावार्थ एवं व्याख्या
प्रस्तुत पंक्तियां महाकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित उद्बोधन कविता से उद्धृत किया गया है। यह कविता उनकी प्रसिद्ध पुस्तक भारत भारती से ली गई है। यह कविता उस समय लिखी गई थी जब भारत परतंत्र था।इस कविता के द्वारा कवि देशवासियों को ज्ञान विज्ञान की नई बातों को अपनाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहे हैं।
कवि कहते हैं, यह संसार समर स्थली है, यहां वही विजयी हो सकता है जो धैर्य पूर्वक परिश्रम कर सकता है। इसलिए हमें अपने मार्ग की विघ्न बाधाओं से लड़ते हुए आगे बढ़ना चाहिए। हमें निर्जीव की तरह सुस्त न रहकर श्रेष्ठ वीर बनकर जीना है।
बेकार बैठ कर समय नहीं नष्ट करना चाहिए। परिश्रम के बिना तो सामने का भोजन भी मुंह में नहीं जाता। इसलिए परिश्रम करते हुए संसार की सुख सुविधाओं का उपभोग करना चाहिए। मेहनत से सब कुछ पाया जा सकता है।
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त आगे लिखते हैं कि परस्पर मेल जोल से ही एकता का विकास होता है। सिर्फ बाहरी एकता नहीं, बल्कि आंतरिक एकता होनी चाहिए। केवल बाहरी और दिखावे की दोस्ती से कुछ नहीं मिलता है।
देखो, निर्जीव दीपक स्वयं जलकर भी दूसरे को प्रकाश प्रदान करता है। और हम मनुष्य होकर दूसरे को दुःख और संताप देते हैं, क्या हम उस निर्जीव दीपक से भी गए बीते है। मनुष्य को एक दूसरे की मदद करनी चाहिए।
हमें पुरानी और गयी बीती बातों को त्यागकर नयी सोच अपनानी चाहिए।हवा का रूख जैसा हो वैसा आचरण करना चाहिए। हवा के विपरीत चलने से नुकसान ही होता है।
समय परिवर्तन शील होता है। आज की बातें कल काम में नहीं आती हैं। समय के साथ अपने कार्य का ढंग बदल देना चाहिए।
बुरी परंपराओं का परित्याग कर हंस जैसी अच्छी बातें अपनानी चाहिए। समय और अवस्था के अनुसार ही काम करना चाहिए। चारों ओर एक परिवर्तन की लहर चल रही है। दिन पर दिन ज्ञान विज्ञान का विस्तार हो रहा है। यदि संसार में सुखी जीवन जीना है तो सारे सोच विचार त्याग कर परिश्रम को अपनाओं।
कवि की भाषा भाव के अनुकूल ही प्रेरणा दायी है। अनुप्रास अलंकार का बहुत सुंदर प्रयोग किया गया है।
उद्बोधन कविता का प्रश्न उत्तर questions answers
1. उद्बोधन कविता के कवि का नाम बताएं।
उत्तर - उद्बोधन कविता के कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं।
2. इस कविता में कवि किसे और क्या प्रेरणा दे रहे हैं ?
उत्तर - इस कविता में कवि मैथिलीशरण गुप्त भारत वासियों को ज्ञान विज्ञान की नई बातों को अपनाकर परिश्रम करने की प्रेरणा दे रहे हैं।
3. कवि क्या बनने को कह रहा है, भागयवादी या पुरूषारथी ,? क्यों ?
उत्तर - कवि भाग्य वादी नहीं, पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। पुरुषार्थ के बल पर संसार की सभी सुख सुविधाओं को पाया जा सकता है।
4. एकता किस प्रकार स्थापित की जा सकती है ?
उत्तर -- आपसी मतभेदों को भुलाकर एकता स्थापित किया जा सकता है। तन से नहीं, बल्कि मन से मिलकर हम एक हो सकते हैं।
5. दीपक हमें क्या शिक्षा देता है ? हममें और दीपक में क्या अंतर है ?
उत्तर -- दीपक निर्जीव होकर भी दूसरे को प्रकाश प्रदान करता है। हम मनुष्य होकर भी दूसरे को दुःख और संताप देते हैं। हमें दीपक शिक्षा देता है कि स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरे की मदद करनी चाहिए।
6. कवि समय को देखकर चलने के लिए क्यों कहता है ?
उत्तर -- समय परिवर्तन शील होता है। पुरानी बातें नये समय में बेकार हो जाती है। इसलिए हमें समय के अनुसार बदलना चाहिए।
7. रूढ़ियों के बारे में कवि का क्या विचार है ?
उत्तर -- बुरी और बेकार रूढ़ियां त्याग कर हमें विवेक से निर्णय लेना चाहिए। पुरानी बातें ही ठीक है, ऐसा धारणा नहीं बनाना चाहिए। हममें अच्छी और बुरी बातों की पहचान होनी चाहिए।
8. विज्ञान के बारे में कवि मैथिलीशरण गुप्त की क्या धारणा है ?
उत्तर -- ज्ञान विज्ञान का प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। पुरानी रूढ़ियां त्याग कर हमें विवेक के साथ विज्ञान को अपनानी चाहिए। हमारे अंदर भी ज्ञान विज्ञान का विस्तार हो।
9. संसार की समर स्थली, में कौन अलंकार है ?
उत्तर - संसार की समर स्थली में से वर्ण की आवृत्ति है, इसलिए अनुप्रास अलंकार है।
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