निजी करण और भारतीय अर्थव्यवस्था privacy policy and Indian economy


Privacy policy and Indian economy

 

निजीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था , निबंध, privacy policy and Indian economy

कुछ समय पहले भारत में सब कुछ सरकारी तंत्र के द्वारा चलाए जा रहे थे। निजीकरण की बात ही नहीं होती थी, परन्तु इसके परिणाम अच्छे नहीं आ रहे थे। लोगों में निष्क्रियता और आलस्य बढ़ती जा रही थी। इसलिए सरकार को कुछ उद्यमों को निजी क्षेत्रों के अन्तर्गत देना पड़ा। इसके लिए कुछ विदेश नीतियां भी उत्तरदाई है। इस लेख में निजीकरण की क्या आवश्यकता है, निजीकरण के लाभ और हानि के साथ साथ भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव को भी बताया गया है।

प्रमुख विंदू

निजीकरण क्या है ? निजीकरण किसे कहते हैं ? ंंनिजीकरण की परिभाषा, निजीकरण क्यों आवश्यक  है ? निजीकरण के क्या लाभ हैं ? कुछ प्रमुख निजी कंपनियों के नाम क्या हैं ? भारत में निजीकरण क्यों आवश्यक है ? निजीकरण के लिए विदेशी नीतियां कैसे उत्तरदाई हैं ? निजीकरण की हानियां। 



 निजी करण का अर्थ --  निजी करण का अर्थ है उद्योग और व्यापार में राष्ट्रीय इकाइयों के नियंत्रण के बजाय व्यक्तियों, व्यक्ति समूह और संस्थानों का नियंत्रण होना। अब तक भारत के अधिकांश बड़े उद्योग व्यापार या सेवाएं बिजली, इस्पात , खनन, जहाजरानी , डाक आदि सभी बड़े उद्योग सरकार के हाथों में है। निजी करण के अंतर्गत इन सभी का स्वामित्व सरकार से हटकर टाटा, बिरला , अंबानी जैसे उद्योग घरानों के पास आ जाएगा।

 निजीकरण की आवश्यकता 

अब प्रश्न उठता है कि आज एकाएक भारत में निजीकरण  की आवश्यकता क्यों पड़ी  ? इसके दो कारण स्पष्ट हैं, प्रथम, भारत को अपने तीव्र आर्थिक विकास के लिए अच्छा धनराशि चाहिए। सरकार के पास साधन सीमित हैं । अन्य उद्योगों, सेवाओं और गतिविधियों के विकास के लिए व्यक्तिगत धनसंपदा का उपयोग किया जाए। उन्हें टेलीफोन, रेलवे, बिजली, जहाजरानी , परिवहन आदि सेवाओं में आने का अवसर दिया जाए। इस प्रकार देश में साधनों का भी विकास होगा तथा व्यापार का भी। इसका कारण है विदेशी दबाव ।काफी समय से विकसित देश भारत के विपुल बाजार में घुसपैठ करना चाहते हैं। यह दबाव देकर भारत की राष्ट्रीय कृत सेवाओं और उद्योगों को अपनी मुट्ठी में लेना चाहते हैं। मुख्यता इन्हीं दो कारणों से आज निजी करण अनिवार्य हो गया है।


निजी करण का लाभ

 निसंदेह निजीकरण की नीति भारत के आर्थिक विकास के लिए अत्यंत उपयोगी है । जब से निजी करण का प्रभाव आरंभ हुआ तब से भारतीय व्यापार जगत में हलचल सी मच गई है। उदाहरण के लिए पहले लोग टेलीफोन करने के लिए नगर के इक्का-दुक्का टेलीफोन बूथों पर झक मार ते नजर आते थे, आज जगह -  जगह पर निजी टेलीफोन जनता की सेवा में लगे हुए हैं। आज सरकारी डाक सेवा से कहीं अधिक तत्परता निजी डाक सेवाएं दिखा रहे हैं। बसों के रखरखाव और यात्रियों की सुविधाओं में जितनी कुशल निजी सेवाएं हैं उतनी सरकारी बसें नहीं। निजी पूंजी के बल पर ही भारत में एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस की सेवाओं की प्रतिस्पर्धा में  निजी विमान सेवाओं की बाढ़ सी आ गई है। इसलिए एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस का भी निजी करण हो रहा है। अब तो रेलवे की निजी करण की बात हो रही है। बिजली उद्योग को लें, सरकारी बिजली सेवा घाटे में चल रही हैं, जबकि मुंबई में कार्यरत निजी बिजली सेवा शानदार लाभ तो कमा ही रही है, उसकी सेवाएं भी विश्व स्तरीय है।

 दिल्ली परिवहन निगम ने भी निजी करण की महत्ता को समझते हुए निजी बस सेवाओं को प्रोत्साहन दिया। इस नीति से अब तक अनेक लाभ मिले हैं। जैसे जनता को बहुत सुविधा मिली है। सेवाओं की कार्य कुशलता में वृद्धि हुई है। सरकारी उद्योगों और सेवाओं को प्रतियोगिता के कारण चुनौती मिली है । इस कारण उनकी सेवाएं भी चुस्त-दुरुस्त हुई हैं। भारत की बेरोजगार जनता को निजी व्यवसाय धंधा खोलने का अवसर मिला है। जिस व्यापार में पहले घाटा होता था अब वही व्यापार लाभ कमा कर फल फूल रहे हैं।


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 निजीकरण से हानियां


 निजी करण में उद्योगपति तन मन लगाकर धन कमाता है। उनका उद्देश्य होता है अधिक से अधिक धन कमाना। धन उपार्जन की अंधी दौड़ मनुष्य को मनुष्य नहीं बना रहने देती। निजी उद्योग चलाने वाला व्यक्ति मशीनें चला चला कर स्वयं भी मशीन बन जाता है। वह दिन रात आर्थिक प्रगति की दौड़ में अपने आप को झोंक देता है । अपने ग्राहकों को भी दोनों हाथों से लूटता है। एक उदाहरण लें, सरकारी डाकखाना एक रजिस्टर्ड पत्र ग्रुप सेवा के जरिए ₹15 में पहुंचता है तो प्राइवेट डाक सेवा उसी पत्र को पहुंचाने के साठ रुपए वसूल करती है।

भारत एक लोक कल्याणकारी देश है। यहां सरकार का लक्ष्य धन कमाना न होकर जनता का कल्याण करना है। इसलिए सरकार राशन द्वारा गरीबों को सस्ते दामों पर अनाज उपलब्ध कराती है। आवश्यक वस्तुओं पर राज्य सरकार सहायता देती है। कल्याण की भावना निजी क्षेत्र में नहीं होती। निजी व्यवसाय डेढ़ रुपए में उत्पादित साबुन ₹10 में बेचता है। ₹10 में उत्पादित पुस्तक ₹60 में बेचता है। 50 पैसे में तैयार किया पेय पदार्थ को ₹5 में बेचता है ।10000 में तैयार स्कूटर को 25000 में बेचता है । इसी मुनाफाखोरी के कारण अधिकांश विदेशी उत्पाद और अमीर घराने हर वर्ष अपनी पूंजी को लगभग दोगुना कर लेते हैं। यह लाभ गरीबों की मुट्ठी से निकलकर अमीरों की तिजोरी में बंद हो जाता है। परिणाम स्वरूप अमीर और अधिक अमीर बनता चला जाता है और गरीब और अधिक गरीब बनता चला जाता है।

निजीकरण की हानियां

निजी करण का सबसे बड़ा खतरा है विदेशों की गुलामी से। यदि सरकार ने अंधाधुंध इस नीति को अपनाया और विदेशी कंपनियों के लिए भी निजी क्षेत्र खोल दिए तो शीघ्र ही भारतीय बाजार विदेशी कंपनियों की गिरफ्त में आ जाएगा । पहले ही यहां कोलगेट, पामोलिव ,हिंदुस्तान लीवर जैसी विदेशी कंपनियों का दबदबा है । निजी करण की खुली छूट देने पर तो कोका कोला पेप्सी कोला आदि की बन आएगी । तब स्वदेशी कंपनियों को या तो इनके सामने घुटने टेकने पड़ेंगे या फिर अपने काम समेट लेने पड़ेंगे।  जिस प्रकार गोदरेज , पारले आदि कंपनियों ने विदेशी कंपनियों के सामने घुटने टेके हैं उसे व्यापार जगत के लोग भली-भांति जानते हैं । ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आई थी तो भारत सैकड़ों वर्ष गुलाम रहा था।  अब असंख्य विदेशी कंपनियां भारत में चली आ रही हैं।

निष्कर्ष -- निजीकरण के खतरे निसंदेह चौका देने वाले हैं, परंतु उसके लाभ भी विस्मयकारी है । वर्तमान समय में भारत का सरकारी तंत्र बिल्कुल नकारा हो चुका है।  इसलिए समय की आवश्यकता है कि निजी करण को अपनाया जाए ताकि निजी पूंजी से स्वदेश समृद्ध बने।  लेकिन साथ ही उस पर ऐसे नियंत्रण और प्रतिबंध लगाए जाएं जिससे निजी व्यवसाय देश की जनता को मनमाना ना लुटे।  उन पर कुछ सीमाएं होनी चाहिए । मूल्य और मुनाफाखोरी की बागडोर सरकार के हाथों में होनी चाहिए।

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