चंद्रगुप्त द्वितीय , चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, गुप्त साम्राज्य, शासन, सैनिक अभियान, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन व्यवस्था, धर्म, सिक्के, Chandragupta dwitiya,
चंद्रगुप्त द्वितीय , चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, गुप्त साम्राज्य, शासन, सैनिक अभियान, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन व्यवस्था, धर्म, सिक्के, Chandragupta dwitiya,
चंद्रगुप्त द्वितीय का जीवन परिचय, चंद्रगुप्त द्वितीय का जन्म कब हुआ, चंद्रगुप्त द्वितीय के पिता कौन थे, चंद्रगुप्त द्वितीय की राजधानी कहां थी , चंद्रगुप्त द्वितीय का शासन काल, चंद्रगुप्त द्वितीय के सिक्के, चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी का क्या नाम था, चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री कौन थी, चंद्रगुप्त द्वितीय की उपाधि, चंद्रगुप्त द्वितीय के नौ रत्नों के नाम बताएं, चंद्रगुप्त द्वितीय ने कौन सा संवत् चलाया, चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि कब धारण की ? चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबारी कवि कौन थे ? चंद्रगुप्त द्वितीय भारतीय इतिहास में क्यों अमर है ?
भारत के इतिहास में गुप्त काल को स्वर्ण काल माना जाता है। इस काल खंड में शासन व्यवस्था, कला, सभ्यता संस्कृति, साहित्य आदि का भरपूर विकास हुआ। समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय बड़ा प्रतापी राजा हुए। इनकी राजधानी उज्जयिनी थी। चंद्रगुप्त द्वितीय का शासन काल 375 से 414 ई माना जाता है। शकों पर विजय के बाद उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। उसने गुप्त संवत चलाया। प्रसिद्ध कवि कालिदास उसके दरबारी कवि थे। नाग राजकुमारी कुबेरनागा उसकी पत्नी थी। चंद्रगुप्त द्वितीय की एक मात्र पुत्री का नाम प्रभावती गुप्त था। अपनी शासन व्यवस्था, सुख समृद्धि, एकता, भाईचारे के कारण चंद्रगुप्त द्वितीय इतिहास में अमर हैं।
चंद्रगुप्त द्वितीय का जन्म, पिता, उपाधि
समस्त गुप्त राजाओं में समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से संपन्न था। उसने देव, देव गुप्त , देवराज , देव श्री ,श्री विक्रम ,विक्रमादित्य, परम भागवत , नरेंद्र चंद्र ,सिंह विक्रम ,अजीत विक्रम आदि उपाधि धारण किए थे। अनुश्रुतियों में चंद्रगुप्त द्वितीय को शकारि अर्थात शकों के शत्रु की उपाधि दी गई है । चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेश रूद्र सेन से किया । रूद्र सेन की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वाकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाई । इसी कारण चंद्रगुप्त द्वितीय को उज्जैनपुरवाराजेश्वर भी कहा जाता है । उसकी एक राजधानी पाटलिपुत्र भी थी।
अतः चंद्रगुप्त द्वितीय को पाटलिपुत्रपुराधिश्वर भी कहा जाता है। दक्षिण भारत में कुंतल एक प्रभावशाली राज्य था। श्रृगार प्रकाश तथा कुंतलेश्श्वरदौत्यम से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। चंद्रगुप्त ने महाकवि कालिदास को अपना राजदूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था। ताल गुंडा प्रशस्ति से यह ज्ञात होता है कि कुंतल नरेश ककुत्स्थववर्मण ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से किया था। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि क्षेमेंद्र की औचित्र विचार चर्चा से भी होती है।
चीनी यात्री फाहियान चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में भारत आया था । फाहियान की यात्रा का उद्देश्य बौद्ध धर्म के प्रमाणिक ग्रंथों की खोज करना तथा तीर्थ स्थलों को देखना था। वह पश्चिमी चीन, मद्धेशिया, पेशावर के स्थल मार्ग से भारत आया वह ताम्र लिप्ती से सिंगल दीप अर्थात श्रीलंका होते हुए समुद्री मार्ग से वापस लौट गया। वह 3 वर्ष तक पाटलिपुत्र में रहा । अपनी यात्रा के अंतिम चरण में वह लुंबिनी तथा वैशाली गया था। उसने अपनी यात्रा विवरण में लिखा है कि तामलुक, पेशावर, गंधार, तक्षशिला बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र थे। मध्यकाल में ब्राह्मणों का बोलबाला था। क्रय विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था। चांडाल शहर से बाहर रहते थे। देश में परोपकारी संस्थाएं थी। सारीपु, लायन तथा आनंद के सम्मान में स्तूप बने थे । कपिलवस्तु, कुशीनगर व श्रावस्ती की दशा सोचनीय हो गई थी।
चंद्रगुप्त द्वितीय ( विक्रमादित्य ) के सैनिक अभियान
अपने सैनिक अभियानों के दौरान चंद्रगुप्त की सबसे पहली विजय शक राजा रूद्र सिंह तृतीय पर हुई। इसकी पुष्टि उसके प्राप्त तीन अभिलेखों से होती है ।प्रथम अभिलेख भिलसा के समीप उदयगिरि पहाड़ी से मिला है जो उसके संधि विग्रहिक सचिव वीरसेन का है। दूसरा अभिलेख भी उदयगिरि में मिलता है जो उसके सामंत सनकानिक महाराज का है। तीसरा लेख सांची का है जो उसके एक सैनिक अधिकारी अम्रकादर्व का है जो सैकड़ों युद्धों का विजेता था । शक विजय के उपलक्ष में चंद्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की तथा शक विजय के स्मृति में व्याघ्र शैली प्रकार के सिक्के चलाएं । चंद्रगुप्त ने शक मुद्राओं के अनुकरण पर ही चांदी के सिक्के चलाए। शक विजय के परिणाम स्वरुप चंद्रगुप्त का अधिकार मालवा, गुजरात ,सौराष्ट्र एवं काठियावाड़ पर स्थापित हो गया। पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह भृगु कच्छ ( भड़च) पर भी उसका अधिकार हो गया।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें