Shershah Suri , शेरशाह सूरी, जीवनी, संघर्ष,शासन व्यवस्था

 शेरशाह सूरी



 शेरशाह सूरी (1540 - 1545 ) जीवनी, शासन व्यवस्था, युद्ध, जीवन संघर्ष, 

शेरशाह का जन्म, शेरशाह के बचपन का नाम, शेरशाह के माता-पिता, फरीद खां का नाम शेर खां क्यों पड़ा। शेरशाह का विवाह, शेरशाह का शासन काल, शेरशाह की मृत्यु, शेरशाह सूरी द्वारा किए गए कार्य। ग्रैंड टैंक रोड ।

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शेरशाह सूरी का असली नाम, जन्म दिन, जन्म स्थान

शेरशाह सूरी का जन्म 1472 ई में बजवाड़ा ( होशियारपुर ) में हुआ था। इनका प्रारम्भिक नाम फरीद खां था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इनका जन्म हिसार फिरोजा में 1486 में हुआ था। फरीद के पिता हसन खां जौनपुर के छोटे जमींदार थे। सौतेली मां और पिता से फरीद को सच्चा प्यार नहीं मिल पाया था। बड़ा होने पर फरीद खां को अपने पिता से सासाराम, खवासपुर का जागीर मिला था, कालान्तर में इन जागीरों के लिए फरीद खां और उसके सौतेले भाई सुलेमान के बीच विवाद होता रहता था।

फरीद का नाम शेर खां कैसे पड़ा

फरीद खां अपने अधिकारों की रक्षा और शक्ति विस्तार के लिए बिहार के सुल्तान मुहम्मद शाह नुहानी के यहां नौकरी कर ली। एक दिन नुहानी के साथ फरीद खां शिकार पर गया था । उसकी भिड़ंत एक शेर से हो गई। फरीद खां ने तलवार के  एक ही बार में शेर को मार दिया। उसकी इस बहादुरी से प्रसन्न होकर सुल्तान बुहानी ने फरीद को शेर खां की उपाधि प्रदान कर दी। अब फरीद खां शेर खा कहलाने लगा।  1529 ई में बंगाल के शासक नुसरतशाह को पराजित कर शेर खां ने हज़रत ए आला की उपाधि धारण की।  1530 ई में शेर खां ने चुनार के किलेदार ताज खां की विधवा लाडमलिका से विवाह कर लिया। इससे उसे चुनार का किला और साथ में बहुत सम्पत्ति हाथ लगा।

शेर खां 1539ई में चौसा का एवं 1540 ई में बिलग्राम या कन्नौज के युद्ध जीतने के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठा। चौसा युद्ध के पश्चात् शेर खां ने शेरशाह की उपाधि धारण की और इसी नाम से उसने सिक्के भी ढलवाए और खुतबे पढ़वाए। उत्तर भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह द्वारा बाबर के चंदेरी अभियान के दौरान कहे गए शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए, " अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा तो , मैं मुगलों को भारत से बाहर निकाल दूंगा। "

जिस समय शेरशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा उस समय उसके साम्राज्य की सीमाएं पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूरब में असम की पहाड़ियों एवं चटगांव तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखण्ड की पहाड़ियों एवं बंगाल की खाड़ी तक फैली हुई थी।

शेरशाह सूरी और खक्खरों

शेरशाह सूरी ने 1541 ई में खक्खरों को समाप्त करने का एक अभियान चलाया। खक्खरों ने हमेशा मुगलों की सहायता की ,। इसलिए शेरशाह सूरी उन्हें समाप्त करना चाहते थे। हालांकि शेरशाह ने उन्हें बहुत हद तक नियंत्रित कर लिया था परंतु उन्हें जड़ से खत्म नहीं कर पाया। शेरशाह ने रोहतास गढ़ नामक किले का भी निर्माण करवाया। हैवत खां और खवास खां के नेतृत्व में एक अफगान सैनिकों की टुकड़ी तैनात कर दिया था।

बंगाल का विद्रोह

बंगाल के सुबेदार खिज्र खां ने स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया था। उसके इरादे को कुचलने के लिए शेरशाह बंगाल आया। उसने खिज्र खां को बंदी बना लिया। बंगाल में दोबारा विद्रोह न हो इसके लिए शेरशाह ने नई प्रशासनिक व्यवस्था शुरू की। पूरे बंगाल को कयी जिले  (सरकारों )में बांटकर  शिकदार नियुक्त कर दिया। शिकदारों के पास सेना की एक टुकड़ी होती थी।

मालवा

गुजरात के शासक बहादुर शाह के मरने के बाद मालवा के सूबेदार मल्लू खां ने अपने को कादिर शाह के नाम से मालवा का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उसने अपने नाम से सिक्के ढलवाए और खुतबे पढ़वाए। शेरशाह सूरी मालवा को अपने अधीन करने के लिए आगे बढ़ा। अप्रैल 1542 में उसने रास्ते में ही ग्वालियर के किले को जीत लिया और वहां के शासक पूरनमल को अपने अधीन कर लिया।  कादिर शाह शेरशाह के इस तेवर से भयभीत होकर अपने परिवार के साथ सारंग पुर में उसके समक्ष समर्पण कर दिया। इससे मांडू, सारंगपुर, उज्जैन पर शेरशाह का कब्जा हो गया। शेरशाह ने सुजात खां को मालवा का गवर्नर नियुक्त किया। लौटते समय रणथंभौर के शक्तिशाली किले को अपने अधीन कर पुत्र आदिल खां को वहां का गवर्नर बनाया।

रायसीन ( 1543 )

रायसीन की मुस्लिम जनता को पूरनमल से शिकायत थी। इसकी सम्पन्नता भी आक्रमण का कारण बना।  1543 ई में शेरशाह ने रायसीन को घेर लिया। लेकिन जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पूरनमल की सुरक्षा का वायदा कर आत्मसमर्पण के लिए तैयार कर लिया। कुतुब खां और आदिल खां इस शर्त के गवाह बने। परन्तु मुसलमानों के दबाव में आकर शेरशाह ने एक रात राजपूतों के खेमे को चारों ओर से घेर लिया। अपने को घिरा पाकर पूरनमल और अन्य राजपूतों ने बहादुरी से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए और स्त्रियों ने जौहर ले लिया। शेरशाह सूरी द्वारा किया गया यह विश्वासघात उसके व्यक्तित्व पर एक काला धब्बा है। इस विश्वासघात से कुतुब खां इतना आहत हुआ था कि उसने आत्महत्या कर लिया।

राजस्थान: मालदेव से युद्ध ( 1544 ई)

मालदेव मारवाड़ पर शासन कर रहा था। जोधपुर उसकी राजधानी थी। उसकी बढ़ती शक्ति से शेरशाह को ईर्ष्या होने लगी। शेरशाह ने बीकानेर नरेश कल्याणमल और मेड़ता नरेश वीरमदेव के आमंत्रण पर मालदेव के विरुद्ध अभियान किया। भल नामक स्थान पर दोनों सेनाएं आमने-सामने थी। यहां भी शेरशाह ने कूटनीति का सहारा लिया। उसने मालदेव के शिविर में यह भ्रान्ति फैला दी कि उसके सरदार उसके साथ नहीं है। इससे मालदेव निराश होकर बिना युद्ध किए ही वापस जाने लगा।  फिर भी उसके जायता और कुम्पा नामक सरदार ने अपने ऊपर लगे अविश्वास को मिटाने के लिए शेरशाह से युद्ध किया। परंतु वे दोनों वीरगति को प्राप्त हुए। इस विजय के बाद शेरशाह ने कहा " मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान के साम्राज्य को प्रायः खो दिया था।" फिर उसने आबू, जोधपुर, नागौर, अजमेर, जयपुर, जोधपुर सहित राजस्थान को अपने अधीन कर लिया।

सिंध और मुल्तान (1543 ई)

शेरशाह ने हैवत खां के नेतृत्व में सिंध तथा मुल्तान के विद्रोहियों बख्सू लंगाह और फतेह खां पर विजय प्राप्त की। शेरशाह ने मुल्तान में फतेह खां और सिंध में इस्लाम खां को सूबेदार नियुक्त किया।

कालिंजर ( बुंदेलखंड) अभियान 1545 ई )


कालिंजर बुंदेलखंड अभियान शेरशाह सूरी के जीवन का अंतिम सैन्य अभियान था। कालिंजर का शासक कीरत सिंह था। उसने शेरशाह की अनुमति के बिना रीवा के महाराज वीरभान सिंह को शरण दे रखी थी। इस कारण शेरशाह ने नवंबर 1544 ई में कालिंजर को घेर लिया। छ: महीने तक जब सफलता नहीं मिली तो गोला बारूद का प्रयोग होने लगा। माना जाता है कि किले की दीवार से टकराकर एक गोला शेरशाह को लग गया और 22 मई 1545 ई को उसकी मृत्यु हो गई।

शेरशाह सूरी द्वारा किए गए कार्य

शेरशाह सूरी ने व्यवस्था सुधार के लिए काफी कार्य किए हैं। उसका शासन अत्यधिक केन्द्रीकृत था। उसने संपूर्ण साम्राज्य को 47 सरकारों में बांट दिया था। सरकारी आय का सबसे बड़ा स्रोत लगान थीं।
शेरशाह के समय में भूमि तीन वर्गों में विभाजित थी। अच्छी, साधारण और खराब। केवल मुल्तान में उपज का 1/4 भाग लगान के रूप में लिया जाता था।

शेरशाह लगभग 1700 सराएं, एवं चार बड़ी सड़कों का निर्माण करवाया जिनमें ग्रांड टैंक रोड प्रसिद्ध है। 1541 में शेरशाह ने पाटलिपुत्र को पटना के नाम से पुनः स्थापित किया।

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