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लोहे का स्वाद कविता

           मृतिका कविता 



मृतिका


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मृतिका कविता, मृतिका कविता का भावार्थ, मृतिका का अर्थ, मृतिका कब अंतरंग प्रिया बन जाती है ? मृतिका कब मातृरूपा बन जाती है। मैं तो मात्र मृतिका हूं, ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है ? नरेश मेहता की कविता मृतिका।

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मृतिका कविता नरेश मेहता रचित प्रसिद्ध कविता है जिसमें कवि ने मनुष्य के पुरुषार्थ के महत्व को बताने का सफ़ल प्रयास किया है। मृतिका का अर्थ मिट्टी है। मिट्टी स्वयं में कुछ नहीं है, वह मनुष्य के मेहनत से तरह तरह का रूप प्राप्त करती है। यहां मृतिका कविता, भावार्थ, शब्दार्थ और प्रश्न उत्तर देखा जा सकता है।




मैं तो मात्र मृतिका हूं--
जब तुमने 
मुझे पैरों से रौंदते हो
तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो

तब मैं-- धन धान्य बनकर मातृरूपा  हो जाती हूं।


जब तुम 
मुझे हाथों से स्पर्श करते हो
तब चाक पर चढ़ाकर घुमाने लगते हो
तब मैं
कुंभ और कलश बनकर
जल लाती अंतरंग प्रिया बन जाती हूं।


जब तुम मुझे मेले में मेरे खिलौने रूप पर
आकर्षित होकर मचलने लगते हो
तब मैं ---
तुम्हारे शिशु - हाथों में पहुंच प्रजा रूपा हो जाती हूं।
पर जब भी तुम
अपने पुरुषार्थ पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो
तब मैं ---
अपने ग्राम्य देवत्व के साथ चिन्मयी शक्ति हो जाती हूं
( प्रतिमा बन तुम्हारी आराध्या हो जाती हूं )
विश्वास करो
यह सबसे बड़ा देवत्व है, कि --
तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो
और मैं स्वरूप पाती मृतिका।

मृतिका कविता भावार्थ 


 मृतिका नरेश मेहता रचित प्रसिद्ध कविता है जिसमें कवि ने मनुष्य के पुरुषार्थ और मेहनत के महत्व के सर्वश्रेष्ठ बताया है। संसार के निर्माण में मनुष्य के परिश्रम और पुरुषार्थ ही सर्वोपरि है। मिट्टी कहती है कि मैं तो मात्र मृतिका हूं, हे मनुष्य तुम ही अपने पुरुषार्थ से मुझे उपजाऊ बनकर अन्न पैदा कर रहे हो। मुझे धन धान्य से परिपूर्ण कर देते हो।

मृतिका कहती हैं - हे मनुष्य मैं कुछ नहीं हूं। जब तुम अपने पुरुषार्थ से मुझे चाक पर चढ़ाकर नया आकार देते हो और सुंदर घड़े और कलश का आकार देते हो तब मैं तुम्हारी अंतरंग प्रिया बन तुम्हारी कमर से लग जाती हूं।यह सब तुम्हारे मेहनत से होता है।

जब तुम मुझे कभी तरह तरह के खिलौने का रूप देते हो तब मैं कभी किसान, कभी आम आदमी बनकर तुम्हारे बच्चो का प्रजा बन जाती हूं। इतना ही नहीं, तुम्हारे हाथों के स्पर्श से मैं शक्ति की देवी देवता भी बनकर पूजनीय बन जाती हूं। परंतु पुरुषार्थ करते मनुष्य हो और मैं तुम्हारे पुरुषार्थ से स्वरूप पाती मृतिका। यही सत्य है।



FAQ 

मृतिका कब अंतरंग प्रिया बन जाती है ?


उत्तर -- जब मनुष्य मिट्टी को अपनी मेहनत से चाक पर चढ़ाकर नया आकार के घड़े बना कर जल भरकर क़मर पर रखता है तब मृतिका अंतरंग प्रिया बन जाती है।

मृतिका कब मातृरूपा बन जाती है ?


उत्तर - जब मनुष्य अपने श्रम से मिट्टी को हल से जोतकर अन्न पैदा करता है और उस अन्न से हमारे भूख मिटते हैं तब मृतिका मातृ रूपा बन जाती है।

मैं तो मात्र मृतिका हूं, ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है ?


उत्तर -- मैं तो मात्र मृतिका हूं ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि मिट्टी अपने आप में मात्र मृतिका है , सबकुछ मनुष्य का श्रम है। श्रम और मेहनत से मनुष्य मिट्टी में भी जान डाल देता है।

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