आकांक्षा कभी संपूर्ण नहीं होती, फकीर की फूटी बाल्टी, कहानी
फकीर की फूटी बाल्टी , कहानी
एक आदमी सूफी फकीर के पास आया और उसने कहा मेरी तृष्णा की पूर्ति कैसे होगी फकीर ने उससे कहा मेरे साथ आओ मैं कुएं पर पानी भरने जा रहा हूं , तुम्हारे सवाल का जवाब वही मिल जाएगा कहने की शायद जरूरत नहीं पड़ेगी तुम देखकर ही समझ लोगे।
जिज्ञासु थोड़ा चकित हुआ कि यह कैसा उपदेश है जो की कुएं पर दिया जाएगा । फकीर होश में है कि नहीं ? फकीर था भी ठक्कर बड़ा मस्त, उसकी आंखें ऐसी थी जैसे उसने अभी-अभी शराब पी हो । चलता था ऐसे जैसे कोई मदमस्त शराबी चलता हो । जिज्ञासु डरने लगा , कुएं का मामला था । उसके मन में आशंकाएं उठने लगी । कही यह धक्का ना दे दे या खुद ही कूद जाए और हम फंस जाए । फिर भी उत्सुकता थी कि देखे वह क्या उत्तर देते हैं।
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कुएं पर पहुंच फकीर की हरकतें देखकर वह व्यक्ति हैरान रह गया। उसे लगा , यह तो बिल्कुल पागल है। दरअसल फकीर ने जो बाल्टी कुएं में डाली उसकी पेंदी ही नहीं थी। बाल्टी को डूबने में देरी ही ना लगी, क्योंकि पेंदी थी ही नहीं। फिर जब उसे ऊपर खींचा जाए तो हाथ कुछ ना आए। बाल्टी ऊपर आए तो खाली। फकीर फिर से उसे कुएं में डालते । दो-तीन बार उस आदमी ने देखा, फिर फकीर से कहा, भाई आप होश में तो हो? मैं आपसे शिक्षा लेने आया था मगर ऐसा मालूम होता है कि खुद आपको शिक्षा की जरूरत है। आप यह क्या कर रहे हो ? पागल तो नहीं हो गये आप? यह बाल्टी कभी भरेगी?
फकीर ने कहा , कुछ समझ में नहीं आया ? यह बाल्टी मैं तुम्हारे लिए ही इस कुएं में डाल रहा हूं। तृष्णा की बाल्टी की कोई पेंदी नहीं होती। तुम भरते रहो जिंदगी भर। भरेगी नहीं कभी, किसी की नहीं भरी इसलिए विषाद होता है। अव्वल तो तुम बहुत मुश्किल से कुएं पर पहुंचे क्योंकि यहां कतार लगी थी। भीड़-भाड़ थी। किसी तरह तुम्हें मौका मिला की बाल्टी डाल सको। बाल्टी भर भी गई , क्योंकि अब तुमने नीचे झांक कर देखा तो बाल्टी भरी हुई पानी में डूबी हुई थी। तुम्हारा चित प्रफुल्ल हुआ। तुमने बड़े उत्साह से बाल्टी ऊपर खींची और हाथ में जब वह आई तो बिल्कुल खाली!
तुमने कितनी वासनाएं की। कितनी बार लगा कि अब तृप्ति मिली। मगर मिली कभी ? कितनी बार लगा कि बालटी लबालब भरी है कुएं के भीतर। मगर जब हाथ में आई तो बार-बार ऐसा हुआ। फिर भी तुम जगे नहीं तुम चौक्कने नहीं हुए। जितनी तुम्हारी आकांक्षा है उतना ही तुम्हारा विषाद है क्योंकि इस जगत में कभी आकांक्षा पूरी नहीं होती। आकांक्षा पूरी हो ही नहीं सकती। उसका स्वभाव पूरा होना नहीं है । आकांक्षा दुष्पुर है । ऐसा बुद्ध ने कहा कि तृष्णा दुष्पूर है ,यह भर नहीं सकती।
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