कूके लगी कोइलें कदंबन पर बैठि फेरी

 

कूके लगी कोइलें कदंबन पर बैठि फेरी , कविता , भावार्थ , व्याख्या, प्रश्न उत्तर 

Kuke lagi koylen  poem


कूके लगी कोइलें कदंबन पर बैठि फेरी

धोएं -  धोए पात हिलि - हिलि सरसे लगे।

बोले लगे दादुर मयूर लगे नाचे फेरी 

देखि कै संजोगी जन हिय हरसे लगे।।


हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी

लिख ' हरिचंद ' फेर प्राण तरसै लगे ।

फेरी झूमि - झूमि बरसा की ऋतु आई फेरी

बादर निगोरे झुकी - झुकी बरसे लगे।।

कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 

कविता का भावार्थ और व्याख्या 

प्रस्तुत कविता में कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रकृति का सुन्दर चित्रण करते हुए कहते हैं, वर्षा ऋतु के आने से कदंब के वृक्ष लताओं पर फिर से कोयलें कूकने लगी। ग्रीष्म ऋतु के धूल भरे थपेड़ों से मटमैले तरू पात वर्षा की बूंदों से धुलकर चमकने लगी हैं। दादुर मोर बोलने लगे, इस सुन्दर सुहावनी दृश्य से संयोगी जन अर्थात जिनके प्रियतम पास हैं, उनका हृदय प्रफुल्लित हो गया है।

कवि आगे लिखते हैं ,- वर्षा ऋतु में धरती हरी - भरी हो गई। शीतल हवाएं चलने लगी। कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कहते हैं, विरहिणी के मन तरसने लगे। फिर वर्षा ऋतु आई है। बादल फिर बरसने लगे। 






टिप्पणियाँ

Recommended Post

Bade Ghar ki Beti , story, बड़े घर की बेटी, कहानी , प्रेमचंद

फूल और कांटा (Phul aur Kanta) poem

1.संपादन ( sampadan) 2. संपादन का अर्थ एवं परिभाषा तथा कार्य 3.संपादन के सिद्धांत

बच्चे काम पर जा रहे हैं , कविता, कवि राजेश जोशी, भावार्थ, व्याख्या, प्रश्न उत्तर, राजेश जोशी का जीवन परिचय, Bachche kam pr ja rhe hai poem, 9th class hindi

चेतक ( कविता ) Chetak horse