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मना लो जन्मदिन भूखे वतन का

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  Mana lo janmdin bhukhe watan ka Shish pr Mangal kalash rakh  मना लो जन्मदिन भूखे वतन का शीश पर मंगल कलश रख  भूल कर जन के सभी दुख  चाहते हो तो मना मना लो जन्म दिन भूखे वतन का। जो उदासी है हृदय पर  वह उभर आती समय पर , पेटकी रोटी जुड़ाओ,  रेशमी झंडा उड़ाओ , ध्यान तो रखो मगर उस अधफटे  नंगे  वदन का । तन कहीं पर ,मन कहीं पर ,  धन कहीं , निर्धन कहीं पर , फूल की ऐसी विदाई, शूल को आती रुलाई , आंधियों के साथ जैसे हो रहा सौदा चमन का ।  आग ठंडी हो , गरम हो , तोड़ देती है मरम को,  क्रांति है आनी किसी दिन , आदमी घड़ियां रहा गिन,  राख कर देता सभी कुछ अधजला दीपक भवन का । मना लो जन्मदिन भूखे वतन का।। प्रश्न -- 'अधजला दीपक भवन का' से कवि का क्या अभिप्राय है ? उत्तर -- व्यथित प्राणी  प्रश्न --' आग ठंडी हो गरम हो ' का क्या प्रतीकार्थ है ? उत्तर -- आग आक्रोश का प्रतीक है। कवि कहना चाहता है कि आक्रोश धीमा हो या तीव्र। क्रांति अवश्य आती है।  प्रश्न ---  "आंधियों के साथ जैसे हो रहा सौदा चमन " का से कवि का क्या अभिप्राय है ? उत्तर -- दुःख और आपदाओं। यहां आंधियों शब्द दुःख और आपदाओं

मातृभूमि मेरी, कविता, सारांश, भावार्थ और प्रश्न उत्तर lcse 10th Hindi poem matribhumi meri मातृभूमि मेरी

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 मातृभूमि मेरी, कविता, सारांश, भावार्थ और प्रश्न उत्तर  lcse 10th Hindi poem matribhumi meri मातृभूमि मेरी  ऊंचा खड़ा हिमालय , आकाश चूमता है  नीचे चरण तले पर ,नित सिंधु झूमता है। गंगा- यमुना त्रिवेणी, नदियां लहर रही हैं, जग मग छटा निराली,पग - पग छहर रही है। यह पुण्य भूमि मेरी, यह मातृभूमि मेरी।। झरने अनेक झरते, इसकी पहाड़ियों में, चिड़िया चहकी रही है,हो मस्त झाड़ियों  में  अमराइयां यहां हैं, कोयल पुकारती हैं  बहते मलय पवन से, तन - मन संवारती है।। यह धर्म भूमि मेरी, यह कर्म भूमि मेरी। यह मातृभूमि मेरी,यह पितृ भूमि मेरी । जो भी यहां पर आया, इसका ही हो गया, नव एकता यहां की , दुश्मन सहम गया है।। ऋषियों ने जन्म लेकर, इसका सुयश बढ़ाया, जग को दया सिखाई, जग को दया दिखाई। यह युद्ध - भूमि मेरी, यह बुद्ध - भूमि मेरी, यह जन्म - भूमि मेरी, यह मातृभूमि मेरी।। मातृभूमि मेरी कविता का शब्दार्थ  सिंधु - सागर। त्रिवेणी - तीन नदियों का संगम। अमराइयां -- आम के बगीचे। नव - नया। सुयश - अच्छा यश। जग - संसार। मातृभूमि मेरी कविता का भावार्थ  मातृभूमि मेरी कविता में स्वर्ग - सी सुंदर भारत - भूमि  के प्राकृतिक एव

Phuta prabhat (poem) फूटा प्रभात कविता का भाव सौंदर्य, प्रश्न उत्तर

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  फूटा प्रभात ( कविता ) phuta prabhat poem summary, questions answers , phuta prabhat poem ke poet Bharat Bhushan Agarwal, फूटा प्रभात कविता का सप्रसंग व्याख्या  फूटा प्रभात कवि भारत भूषण अग्रवाल की प्रकृति चित्रण संबंधित रचना है। इस कविता में कवि ने सुबह सवेरे के प्राकृतिक सुषमा का सुंदर चित्रण किया है। यहां कविता , व्याख्या और प्रश्न उत्तर दिया गया है। फूटा प्रभात, फूटा विहान  बह चले रश्मि के प्राण, विहग के गान, मधुर निर्झर के स्वर  झर - झर , झर - झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज, मानो अंबर की सरसी में  फूला कोई रक्तिम गुलाब, रक्तिम सरसिज। धीरे-धीरे, लो, फैल चली आलोक रेख  घुल गया तिमिर, बह गयी निशा, चहुं ओर देख , धुल रही विभा, विमलाभ कांति। अब दिशा - दिशा  सस्मित  विस्मित खुल गये द्वार , हंस रही उषा। खुल गये द्वार, दृग खुले कंठ  खुल गये मुकुल  शतदल के शीतल कोषों से निकला मधुकर गुंजार लिये खुल गये बंध, छवि के बंधन। जागी जगती के सुप्त बाल! पलकों की पंखुड़ियां खोलो, खोलो मधुकर के आलस बंध  दृग भर  समेट तो लो यह श्री, यह कांति  बही आती दिगंत से यह छवि की सरिता अमंद  झर - झर - झर । फूटा प्रभात

कर्मवीर कविता , कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

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पत्ते से सीखो ( कहानी )   कर्मवीर कविता, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध , कर्मवीर कविता का भावार्थ और प्रश्न उत्तर  देखकर बांधा विविध बहुत विघ्न घबराते नहीं   रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं  काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं  भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं  हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।। आज करना है जिसे करते उसे है आज ही  सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही  मानते जो कि है सुनते हैं सदा सबकी कहीं जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही  भूल कर वे दूसरों का मुंह कभी तकते नहीं  कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।। जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं  काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं  आज़ कल करते हुए जो दिन गंवाते हैं नहीं, यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं  बात है वह कौन जो होते नहीं उनके लिए  वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।। व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर, वे घने जंगल जहां रहता है तम आठो पहर  गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊंची लहर  आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट  ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को

हिमालय , कविता, कक्षा दूसरी

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  हिमालय , कविता, कक्षा दूसरी  Himalaya poem  खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी - पानी में। डटे रहो सब अपने पथ में, कठिनाई तूफानों में।। डिगो न अपने पथ पर से तो सब कुछ पा सकते प्यारे। तुम भी ऊंचे बन सकते हो, छू सकते नभ के तारे।। अटल रहा जो अपने पथ पर लाख मुशिबत आने पर। मिली सफलता उसको जग में, जीने में, मर जाने में।। जितनी भी बाधाएं आईं, उन सबसे तो लड़ा हिमालय। इसलिए तो दुनिया भर में, सबसे बड़ा हुआ हिमालय।। पत्ते से सीखो ( कहानी  क्लिक करें और पढ़ें  हिमालय कविता का भावार्थ  कविता 'हिमालय ' में कवि संघर्ष और लगातार काम करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि , हिमालय की तरह अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहो। किसी आंधी तूफान से नहीं डरो। लगातार संघर्ष से ही मनुष्य आसमान की बुलंदियों को छू सकता है। जो अपने पथ पर हिमालय की तरह अटल रहेगा वही सफलता का स्वाद चख सकेगा।  हिमालय सदियों से भारत का प्रहरी रहा है। यह पर्वतों का राजा है और सालों भर इसकी चोटियां सफेद बर्फ से ढकी रहती है। हमें भी हिमालय की तरह अपने कार्य पर डटे रहना चाहिए।

कौन पार फिर पहुंचाएगा, कविता, महादेवी वर्मा, kaun par phir pahuchaega

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  कौन पार फिर पहुंचाएगा, कविता, महादेवी वर्मा, kaun par phir pahuchaega टकराएगा नहीं आज उद्धत लहरों से, कौन ज्वार फिर तुझे पार तक पहुंचाएगा ? अब तक धरती अचल रही पैरों के नीचे, फूलों की दे ओट सुरभि के घेरे खींचे, पर पहुंचेगा पंथी दूसरे तट पर उस दिन, जब चरणों के नीचे सागर लहराएगा। गर्त शिखर बन , उठे लिए भंवरों का मेला, हुए पिघल ज्योतिष्क तिमिर की निश्छल बेला, तू मोती के द्वीप स्वप्न में रहा खोजता, तब तो बहता समय शिला - सा जम जाएगा, लौ से दीप्त देव - प्रतिमा की उज्ज्वल आंखें, किरणें बनी पुजारी के हित वर की पांखें, वज्र शिला पर गढ़ी ध्वशं की रेखाएं क्या ?, यह अंगारक हास नहीं पिघला पाएगा। धूल पोंछ कांटे मत गिन छाले मत सहला मत ठंडे संकल्प आंसुओ से तू बहला, तुझसे हो यदि अग्नि - स्नात यह प्रलय महोत्सव तभी मरण का स्वस्ति - गान जीवन गाएगा टकराएगा नहीं आज उन्मद लहरों से कौन ज्वार फिर तुझे दिवस तक पहुंचाएगा कवयित्री - महादेवी वर्मा 

आए महंत बसंत, कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कविता आए महंत बसंत का भावार्थ, प्रश्न उत्तर Aye mahant basant

    आए महंत बसंत, कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कविता आए महंत बसंत का भावार्थ, प्रश्न उत्तर  Aye mahant basant प्रिय पाठकों! आए महंत बसंत नामक कविता कविवर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की बहुत प्रसिद्ध कविता है। इस कविता में रूपक अलंकार का सुन्दर प्रस्तुति है। यहां ऋतुराज बसंत को एक महंत के रूप में चित्रित किया गया है । आए महंत बसंत में कौन सा अलंकार है ? आए महंत बसंत में रूपक अलंकार है। मखमल के झूल पड़े हाथी सा टीला में कौन अलंकार है ! मखमल के झूल पड़े हाथी सा टीला में उपमा अलंकार है।      हिमालय कवित ा आए महंत बसंत। मखमल के झूल पड़े, हाथी - टीला, बैठे किंशुक छत्र लगा बांध पागल पीला, चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत। आए महंत बसंत।   श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात , कोंपल के मुंदे नयन थर - थर- थर पुलकगात, अगरु धूम लिए , झूम रहे सुमन दिग - दिगंत। आए महंत बसंत। खड़ -खड़ करताल बजा नाच रही विसुध हवा, डाल - डाल अलि - पिक के गायन का बंधा समां, तरु - तरु की ध्वजा उठी जय - जय का है न अंत। आए महंत बसंत।। कवि - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। x

Lohe ka swad kaun janta hai, lohe ka swad poem, लोहे का स्वाद कविता कवि सुदामा पांडेय धूमिल, लोहे का स्वाद कौन अधिक जानता है, लोहार या घोड़े

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  लोहे का स्वाद , कविता Lohe ka swad , poem ka bhaw Lohe ka swad kaun janta hai, lohe ka swad poem, लोहे का स्वाद कविता कवि सुदामा पांडेय धूमिल, लोहे का स्वाद कौन अधिक जानता है, लोहार या घोड़े  " शब्द किस तरह कविता बनते हैं इसे देखो अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो क्या तुमने सुना कि यह लोहे की आवाज है या मिट्टी में गिरे हुए ख़ून का रंग।" लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है। -----  सुदामा पांडेय ' धूमिल ' भावार्थ  अधिकांश कविताऐं उन दबे कुचले, पीड़ित शोषित जनों को केन्द्र में रखकर लिखी जाती है जिनपर कोई ध्यान नहीं देता। उन दलित पीड़ित परिवारों की ओर देखो। कानून और नियम बनाने वाले क्या जाने , उसके पालन और क्रियान्वयन करने वाले पर क्या गुजरती है। जिस तरह उस घोड़े से पूछो कि लोहा का स्वाद कैसा होता है जिसके मुंह में लगाम है। लगाम बनाने वाले लोहार क्या जाने लोहे का स्वाद ? वह तो दूसरे के लिए लगाम बनाने का काम किया है।

इहि आस अट्क्यो रहत अलि गुलाब के मूल। होइह फिर बसन्त ऋतु, इन डारन, वहीं फूल।।

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  इहि आस अट्क्यो रहत अलि गुलाब के मूल। होइह फिर बसन्त ऋतु, इन डारन, वहीं फूल।। कविवर बिहारी लाल कहते हैं,  पतझड़ में गुलाब पौधे के फूल पत्ते झड़ जाते हैं। कहीं कोई रस नहीं होता। फिर भी भौंरा आशा नहीं छोड़ता। उसी गुलाब के सूखे जड़ में चिपका रहता है। उम्मीद करता है कि फिर बसन्त ऋतु आएगा और यही पौधे सुंदर फूलों से लद जाएंगे और तब मीठे-मीठे रसों की भरमार होगी। डॉ उमेश कुमार सिंह हिन्दी में पी-एच.डी हैं और आजकल धनबाद , झारखण्ड में रहकर विभिन्न कक्षाओं के छात्र छात्राओं को मार्गदर्शन करते हैं। You tube channel educational dr Umesh 277, face book, Instagram, khabri app पर भी follow कर मार्गदर्शन ले सकते हैं।

मृतिका कविता, भावार्थ, प्रश्न उत्तर, शब्दार्थ, कवि नरेश मेहता,miritika, summary

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लोहे का स्वाद कविता            मृतिका कविता  मृतिका कविता, भावार्थ, प्रश्न उत्तर, शब्दार्थ, कवि नरेश मेहता,miritika, summary  मृतिका कविता, मृतिका कविता का भावार्थ, मृतिका का अर्थ, मृतिका कब अंतरंग प्रिया बन जाती है ? मृतिका कब मातृरूपा बन जाती है। मैं तो मात्र मृतिका हूं, ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है ? नरेश मेहता की कविता मृतिका। Miritika poem, miritika poem summary, miritika meaning, miritika question answer, naresh Mehta poem. मृतिका कविता नरेश मेहता रचित प्रसिद्ध कविता है जिसमें कवि ने मनुष्य के पुरुषार्थ के महत्व को बताने का सफ़ल प्रयास किया है। मृतिका का अर्थ मिट्टी है। मिट्टी स्वयं में कुछ नहीं है, वह मनुष्य के मेहनत से तरह तरह का रूप प्राप्त करती है। यहां मृतिका कविता, भावार्थ, शब्दार्थ और प्रश्न उत्तर देखा जा सकता है। मैं तो मात्र मृतिका हूं-- जब तुमने  मुझे पैरों से रौंदते हो तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो तब मैं-- धन धान्य बनकर मातृरूपा  हो जाती हूं। जब तुम  मुझे हाथों से स्पर्श करते हो तब चाक पर चढ़ाकर घुमाने लगते हो तब मैं कुंभ और कलश बनकर जल लाती अंतरंग प्रिया बन जाती ह

गिरिधर की कुंडलियां, Giridhar ki kundaliya, bhawarth, questions answers कुंडली के अर्थ, शब्दार्थ

गिरिधर की कुंडलियां, अर्थ सहित, Giridhar ki kundaliya,  bhawarth, questions answers कुंडली के अर्थ, शब्दार्थ, गिरधर कविराय के जीवन के कुछ अंश, कुंडलियां की विशेषता  बीती ताहि बिसार दे, सांई अपने चित्त की, बिना बिचारे जो करे biti tahi bisar de, Sai apne chitt ki, Bina bichare Jo kare, girdhar ki kundaliya, girdhar kavirai, class 8 poem  बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेई ; का अर्थ बताएं  बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेई का हमारे जीवन में क्या महत्व है। बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेई । जो बनि आवै सहज में , ताहि में चित्त देई ।‌। ताहि में चित्त देई, बात जोई बनी आवै । दुर्जन हसै न कोई , चित्त में खता न पावै।। कह गिरधर कविराय, यहै करुमन परतीती। आगे को सुख समुझि, हो, बीती सो बीती।। भावार्थ  गिरिधर की कुंडलियां शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है। प्रेरणा दायक है। कवि कहते हैं -- जो बीत गई सो बात गई। जो बात बीत गई उसे वहीं भूल जाना चाहिए। और आगे का काम देखना चाहिए। इसी में भलाई है। इससे मन में कोई दुःख भी नहीं होता। इसलिए बीती बातें भूल जाओ। अपने मन की बात किसी को क्यों नहीं बताना च

नदी का रास्ता कविता का भावार्थ, शब्दार्थ और प्रश्न उत्तर,नदी को रास्ता किसने दिखाया,Nadi ka rasta poem, explain,poet Balkrishan rao

  नदी का रास्ता कविता का भावार्थ, शब्दार्थ और प्रश्न उत्तर,नदी को रास्ता किसने दिखाया,Nadi ka rasta poem, explain,poet Balkrishan rao विषय सूची नदी का रास्ता कविता नदी का रास्ता कविता का शब्दार्थ नदी का रास्ता कविता का भावार्थ नदी का रास्ता कविता का प्रश्न उत्तर Nadi ka rasta poem, नदी का रास्ता कविता, कवि बाल कृष्ण राव नदी को रास्ता किसने दिखाया  सिखाया था उसे किसने कि अपने भावना के वेग को उन्मुक्त बहने दे, कि वह अपने लिए खुद खोज लेगी सिंधु की गंभीरता स्वच्छंद बहकर ? इसे हम सुनते आए युगों से, और सुनते ही युगों से आ रहे उत्तर नदी का -- मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने, बनाया मार्ग मैंने आप ही अपना  । ढकेला था शिलाओं को, गिरी निर्भीकता से मैं कई ऊंची प्रपातों से, वनों से कंदराओं में भटकती भूलती मैं फूलती उत्साह से प्रत्येक बाधा विघ्न को ठोकर लगाकर ठेलकर बढ़ती गई आगे निरंतर एक तट को दूसरे से दूरतर करती। बढ़ी सम्पन्नता के साथ और अपने दूर तक फैले हुए साम्राज्य के अनुरूप गति को मंदकर-- पहुंची जहां सागर खड़ा था फेन की माला लिए मेरी प्रतीक्षा में, यही इतिवृत्त मेरा। मार्ग मैंने आप ही अपना

Tulsi ke Ram , तुलसी के राम कविता

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जैसी करनी वैसी भरनी, जो करेगा वही पाएगा   Tulsi ke Ram , तुलसी के राम कविता  गोस्वामी तुलसीदास श्रीराम के अनन्य भक्त हैं। उन्होंने श्रीराम से संबंधित कई पुस्तकें लिखी हैं। यहां बालक श्री राम के रूप सौंदर्य का सुंदर वर्णन किया गया है। यह कविता पांचवीं कक्षा में पढ़ाई जाती है।                    तुलसी के राम कविता कक्षा पांचवीं  अवधेश के द्वार सकारे गई,सुत गोद  के भूपति ले निकसै। अवलोकहिं सोच विमोचन को, ठगी सी रही जे न ठगे धिक से। तुलसी मन रंजन रंजित अंजन नयन सुखंजन जातक से। सजनि ससि में समसील उभै नवनील सरोरूह से विकसे।।  भावार्थ एक सखी दूसरी सखी से कहती है -- अवधेश राजा दशरथ के द्वार पर देखी हूं कि सबेरे ही राजा दशरथ अपने पुत्र राम को गोद में लेकर बाहर निकले। बाल राम के रूप सौंदर्य को देखकर मैं चकित रह गयी। उनकी आंखें खंजन पक्षी के बच्चे की तरह थी। उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे चांद में दो नीले कमल खिले हो। उनकी सुन्दरता देखकर को मोहित नहीं होगा ? तन की दुति स्याह सरोरूह,लोचन कंज की मंजुलताई हरे। अति सुन्दर सोहत धूरि भरे,छवि भूरि अनंग की दूरी धरे। दमकै दतियां दुति दामिनी ज्यों, किलकै क

वन की शोभा, कवि गोपाल सिंह नेपाली wan ki shobha, poem, poet Gopal Singh Nepali

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 वन की शोभा, कवि गोपाल सिंह नेपाली wan ki shobha, poem, poet Gopal Singh Nepali 'वन की शोभा' कविवर गोपाल सिंह नेपाली द्वारा रचित एक सुंदर कविता है जिसमें वन कानन का मनोहारी चित्र उपस्थित किया गया है। यह कविता चौथी कक्षा में पढ़ाई जाती है। यहां कविता, भावार्थ एवं व्याख्या दी गई है जो छात्रों के लिए लाभ दायक है। उस विशाल विस्तृत कानन में रम्य अनेकों वन थे, हरे - भरे तरूवर जिनमें उस कानन के धन थे। रच रच नीड़ बसाकर दुनिया खग आनंद मगन थे, थे निर्झर , थी सर - सरिताएं , फल थे , सरस सुमन थे।। इस कानन के मध्य भाग में सुन्दर पल्लव वन था, कानन भर में यही एक ही पल्लव का उपवन था। तरह तरह के पल्लव थे, अति कोमल जिनका तन था, छन छन उड़कर जिनपर जाकर चिपका रहता मन था।। चारों ओर घिरा था वह वन - सरिताओं के जल से, होता था मुखरित सारा वन जल के मृदु कल-कल से। फूट पड़ी है अमृत धारा मीठी पृथ्वी तल से, ऐसा सोच वहां आते थे, पंछी तरूवर दल से।। जगह जगह थे झील सरोवर जिनमें निर्मल जल था, जहां नहाता , पानी पीता वन का पंछी दल था। क्यारी क्यारी में वैसे तो लगा न जल का नल था, फिर भी क्या जाने क्यों उनमें जल बहता

रहीम कवि के दस दोहे, रहीम की जीवनी, Rahim ke 10 dohe, Rahim ki jiwani

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रहीम के दोहे, रहीम की जीवनी रहीम के दोहे , रहीम के दोहे का अर्थ, रहीम के दोहे की शिक्षा, संदेश, रहीम का जीवन परिचय, Rahim ke dohe, Saransh, Rahim ke dohe ki shiksha   रहीम कवि की जीवनी, biography of Rahim रहीम कवि कि पूरा नाम अब्दुल रहीम खाने खाना था ‌ । वे मुगल सम्राट अकबर के दरबारी नवरत्नों में एक थे। उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से भारत वासियों को नीति और ज्ञान का सबक सिखाया है। रहीम एक अच्छे कलाप्रेमी और साहित्यकार थे। उनके दोहे में नीति, भक्ति, रीति, प्रेम, श्रृंगार की गंगा बहती है ‌उन्होने रामायण, महाभारत, गीता, पुराण की कथाओं से दृष्टांत लिए हैं।  पूरा नाम - अब्दुल रहीम खाने खाना पिता जी - मरहूम बैरम खाने खाना जन्म तिथि - 1556 लाहौर मृत्यु - 1627 प्रमुख रचनाएं - रहीम दोहावली, रहीम सतसई, मदनाश्टक, रहीम रत्नावली। जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग।। अर्थ -- रहीम कवि कहते हैं - यदि आपका चरित्र उत्तम और निश्चय दृढ़ हो तो कुसंति भी आपका कुछ नही बिगाड़ सकता। अर्थात बुरी संगति  का प्रभाव भी उस पर नहीं पड़ता। जैसे चन्दन के पेड़ पर तरह तरह के व

Jaliyawala bag me Basant, poem, जालियांवाला बाग में बसंत

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 जालियांवाला बाग, jaliyawala bag me hatyakand  जालियांवाला बाग में बसंत, jaliyawala bag me Basant, जालियांवाला बाग कहां है, जालियांवाला बाग हत्या काण्ड, जालियांवाला बाग में बसंत कविता, जालियांवाला बाग में बसंत कविता का भावार्थ, जनरल डायर, सरदार ऊधम सिंह, जालियांवाला बाग में बसंत कविता का प्रश्न उत्तर, questions answers of jaliyawala bag me Basant poem, subhadra kumari chauhan, सुभाद्रा कुमारी चौहान की जीवनी। जालियांवाला बाग में बसंत कविता, Jaliyawala bag me Basant poem यहां कोकिला नहीं, काक है शोर मचाते। काले - काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते। कलियां भी अधखिली, मिली हैं कंटक - कुल से। वे पौधे, वे पुष्प , शुष्क हैं अथवा झुलसे।। परिमल - हीन पराग दाग -सा बना पड़ा है। हां ! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है। आओ, प्रिय ऋतुराज ! किंतु धीरे से आना। यह है शोक - स्थान यहां मत शोर मचाना।। वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना। दुख की आहें संग उड़ाकर मत ले जाना। कोकिल गावे, किंतु राग रोने का गावे। भ्रमर करे गुंजार , कष्ट की कथा सुनावै।। लाना संग में पुष्प , न हों वे अधिक सजीले। हो सुगंध भी मंद , ओस से

Chandra gahna se lauti ber, poem, चन्द्र गहना से लौटती बेर, केदारनाथ अग्रवाल

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  चन्द्र गहना से लौटती बेर,  कविता , कवि केदारनाथ अग्रवाल Chandra gahna se lauti ber poem, poet kedar nath Agarwal  "चंद्र गहना से लौटती बेर "  सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ अग्रवाल की छायावादी कविता है। यहां कवि ने प्रकृति का मानवीकरण करते हुए  सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है‌। कवि चन्द्र गहना नामक स्थान से लौटती बेर एक खेत के मेड़ पर बैठ कर प्राकृतिक दृश्य देखते हुए कविता लिख रहा है। यहां मैंने कवि केदारनाथ अग्रवाल का जीवन परिचय, कविता और चन्द्र गहना से लौटती बेर की व्याख्या , भावार्थ, शब्दार्थ और प्रश्न उत्तर प्रस्तुत किया हूं  जिससे पाठकों को लाभ मिलेगा ।  Table of contents 1. चन्द्र गहना से लौटती बेर कविता, Chandra gahna se lauti ber poem 2. चन्द्र गहना से लौटती बेर के कवि केदारनाथ अग्रवाल का जीवन परिचय, काव्य गत विशेषता एवं भाषा शैली  biography of poet Kedarnath Agarwal 3. चन्द्र गहना से लौटती बेर कविता का भाव एवं काव्य सौंदर्य शिल्प सौंदर्य, अलंकार, भाषा शैली 4. चन्द्र गहना से लौटती बेर कविता का प्रश्न उत्तर, questions answers NCERT solutions देखआया चन्द्र गहना। देखता हूं दृश्