Phuta prabhat (poem) फूटा प्रभात कविता का भाव सौंदर्य, प्रश्न उत्तर
फूटा प्रभात ( कविता ) phuta prabhat poem summary, questions answers , phuta prabhat poem ke poet Bharat Bhushan Agarwal, फूटा प्रभात कविता का सप्रसंग व्याख्या फूटा प्रभात, फूटा विहान बह चले रश्मि के प्राण, विहग के गान, मधुर निर्झर के स्वर झर - झर , झर - झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज, मानो अंबर की सरसी में फूला कोई रक्तिम गुलाब, रक्तिम सरसिज। धीरे-धीरे, लो, फैल चली आलोक रेख घुल गया तिमिर, बह गयी निशा, चहुं ओर देख , धुल रही विभा, विमलाभ कांति। अब दिशा - दिशा सस्मित विस्मित खुल गये द्वार , हंस रही उषा। खुल गये द्वार, दृग खुले कंठ खुल गये मुकुल शतदल के शीतल कोषों से निकला मधुकर गुंजार लिये खुल गये बंध, छवि के बंधन। जागी जगती के सुप्त बाल! पलकों की पंखुड़ियां खोलो, खोलो मधुकर के आलस बंध दृग भर समेट तो लो यह श्री, यह कांति बही आती दिगंत से यह छवि की सरिता अमंद झर - झर - झर । फूटा प्रभात, फूटा विहान, छूटे दिनकर के शर ज्यों छवि के वह्नि -बाण ( केशर - फूलों के प्रखर बाण ) आलोकित जिनसे धरा प्रस्फुटित पुष्पों से प्रज्वलित दीप, लौ - भरे सीप । फूटी किरणें ज्यों वह्नि -बाण, ज्यों ज्यो