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मेला देखने जाने के लिए मित्र को आमंत्रण पत्र लिखें। पत्र लेखन

 मेला देखने जाने के लिए मित्र को आमंत्रण पत्र लिखें। पत्र लेखन  प्रिय मित्र सोनू,                                           धनबाद, 25/10/2024  सप्रेम नमस्ते ! मैं यहां सकुशल हूं और आशा है कि तुम  भी बालासोर में कुशल पूर्वक रहकर अपनी पढ़ाई कर रहे होंगे। यहां सब समाचार ठीक है। मेरी अर्धवार्षिक परीक्षा सम्पन्न हो गई है। कुछ ही दिनों में परिणाम भी सामने आ जाएगा। 31 अक्टूबर को दीपावली है। इसके दो दिन पहले से ही यहां मेला लगता है। मेला छठ पूजा तक रहेगा। मेले में तरह तरह के झूले और दुकानें लगती हैं। तुम रहोगे तो घूमने में बहुत मज़ा आएगा। पत्र पाते ही तुम शीघ्र आ जाओ। साथ में खूब मज़े करेंगे। आशा है तुम्हारे विद्यालय में भी छुट्टियां हो गई होगी। मिलने पर और बातें होंगी। चाचा चाची को प्रणाम। तुम्हारा अभिन्न मित्र  सोनू संधि की परिभाषा और उदाहरण  पढ़ें 

Sanp poem , सांप कविता, कवि अज्ञेय

  अज्ञेय जी की प्रसिद्ध कविता सांप  सांप! तुम सभ्य तो हुए नहीं, नगर में बसना  भी तुम्हें नहीं आया । एक बात पूछूं ( उत्तर दोगे) तब कैसे सीखा डसना -- विष कहां पाया ? कवि -- अज्ञेय 

संधि,संधि की परिभाषा, संधि के उदाहरण,संधि के भेद, स्वर संधि, व्यंजन संधि, विसर्ग संधि, sandhi, sandhi ke bhed, sandhi ke udaharan

मेला देखने जाने के लिए मित्र को पत्र   संधि,संधि की परिभाषा, संधि  के उदाहरण,संधि के भेद, स्वर संधि, व्यंजन संधि, विसर्ग संधि, sandhi, sandhi ke bhed, sandhi ke udaharan  संधि की परिभाषा  दो वर्णों के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे संधि कहते हैं। संधि में वर्णों के मेल से विकार उत्पन्न होता है। जैसे - विद्या +आलय - विद्यालय। पुस्तक + आलय - पुस्तकालय। एक + एक - एकैक। रवि + इन्द्र - रवीन्द्र। संधि के भेद या प्रकार  1. स्वर संधि  2.व्यंजन संधि  3. विसर्ग संधि  1.स्वर संधि -- एक दूसरे के बाद आने वाले दो स्वरोंके मिलने से उनके स्वरूप में जो परवर्तन होता है उसे स्वर संधि कहते हैं।  अथवा  जहां दो स्वरों का परस्पर मेल होने से किसी एक स्वर अथवा दोनों स्वरों में जो परिवर्तन होता है उसे स्वर संधि कहते हैं। स्वर संधि के उदाहरण -- भानु +उदय -- भानूदय,  रमा + ईश -- रमेश। स्वर संधि के पांच भेद हैं -- 1. दीर्घ संधि, 2. गुण संधि 3. यण संधि , 4. वृद्धि संधि और 5. अयादि संधि। 2. व्यंजन संधि -- व्यंजन के बाद स्वर या व्यंजन आने पर जो परिवर्तन होता है, वह व्यंजन संधि कहलाता है। जैसे जगत् + ईश= जगदीश। 

हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर

हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर  1. प्रश्न - भाषा किसे कहते हैं ?  उत्तर - वह माध्यम जिससे हम अपने मन के भावों को बोलकर अथवा लिखकर व्यक्त करते हैं, उसे भाषा कहते हैं । हिंदी, अंग्रेजी, रूसी आदि विश्व की कुछ प्रमुख भाषाएं हैं। 2. प्रश्न -- लिपि किसे कहते हैं ? उत्तर -- मौखिक ध्वनियों को लिखित रूप प्रदान करने वाले चिन्हों को लिपि कहते हैं। 3. प्रश्न -- हिन्दी भाषा की लिपि का नाम क्या है ? उत्तर - हिन्दी की लिपि का नाम देवनागरी लिपि है ।  4. प्रश्न -- वर्ण किसे कहते हैं ? उत्तर - वह मूल ध्वनि जिसके खंड या टूकड़े न हो, उसे वर्ण कहते हैं । 5. प्रश्न - हिंदी के वर्णों की संख्या बताओ । उत्तर -  हिंदी में वर्णों की संख्या 52 है । 6. प्रश्न -- वर्ण के भेद या प्रकार बताए। उत्तर हिंदी में वर्णों की संख्या दो है। स्वर वर्ण और व्यंजन वर्ण। प्रश्न 7. स्वर वर्ण की संख्या बताओ। उत्तर -- स्वर वर्ण की संख्या 11 है। 8.  कवर्ग का उच्चारण स्थान बताएं। उत्तर - कवर्ग का उच्चारण स्थान कंठ है। 9. चवर्ग का उच्चारण स्थान क्या है ? उत्तर--  चवर्ग का उच्चारण स्थान तालु है। 10. टवर्ग का उच्चारण स्थान बताएं।

मना लो जन्मदिन भूखे वतन का

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  Mana lo janmdin bhukhe watan ka Shish pr Mangal kalash rakh  मना लो जन्मदिन भूखे वतन का शीश पर मंगल कलश रख  भूल कर जन के सभी दुख  चाहते हो तो मना मना लो जन्म दिन भूखे वतन का। जो उदासी है हृदय पर  वह उभर आती समय पर , पेटकी रोटी जुड़ाओ,  रेशमी झंडा उड़ाओ , ध्यान तो रखो मगर उस अधफटे  नंगे  वदन का । तन कहीं पर ,मन कहीं पर ,  धन कहीं , निर्धन कहीं पर , फूल की ऐसी विदाई, शूल को आती रुलाई , आंधियों के साथ जैसे हो रहा सौदा चमन का ।  आग ठंडी हो , गरम हो , तोड़ देती है मरम को,  क्रांति है आनी किसी दिन , आदमी घड़ियां रहा गिन,  राख कर देता सभी कुछ अधजला दीपक भवन का । मना लो जन्मदिन भूखे वतन का।। प्रश्न -- 'अधजला दीपक भवन का' से कवि का क्या अभिप्राय है ? उत्तर -- व्यथित प्राणी  प्रश्न --' आग ठंडी हो गरम हो ' का क्या प्रतीकार्थ है ? उत्तर -- आग आक्रोश का प्रतीक है। कवि कहना चाहता है कि आक्रोश धीमा हो या तीव्र। क्रांति अवश्य आती है।  प्रश्न ---  "आंधियों के साथ जैसे हो रहा सौदा चमन " का से कवि का क्या अभिप्राय है ? उत्तर -- दुःख और आपदाओं। यहां आंधियों शब्द दुःख और आपदाओं

मातृभूमि मेरी, कविता, सारांश, भावार्थ और प्रश्न उत्तर lcse 10th Hindi poem matribhumi meri मातृभूमि मेरी

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 मातृभूमि मेरी, कविता, सारांश, भावार्थ और प्रश्न उत्तर  lcse 10th Hindi poem matribhumi meri मातृभूमि मेरी  ऊंचा खड़ा हिमालय , आकाश चूमता है  नीचे चरण तले पर ,नित सिंधु झूमता है। गंगा- यमुना त्रिवेणी, नदियां लहर रही हैं, जग मग छटा निराली,पग - पग छहर रही है। यह पुण्य भूमि मेरी, यह मातृभूमि मेरी।। झरने अनेक झरते, इसकी पहाड़ियों में, चिड़िया चहकी रही है,हो मस्त झाड़ियों  में  अमराइयां यहां हैं, कोयल पुकारती हैं  बहते मलय पवन से, तन - मन संवारती है।। यह धर्म भूमि मेरी, यह कर्म भूमि मेरी। यह मातृभूमि मेरी,यह पितृ भूमि मेरी । जो भी यहां पर आया, इसका ही हो गया, नव एकता यहां की , दुश्मन सहम गया है।। ऋषियों ने जन्म लेकर, इसका सुयश बढ़ाया, जग को दया सिखाई, जग को दया दिखाई। यह युद्ध - भूमि मेरी, यह बुद्ध - भूमि मेरी, यह जन्म - भूमि मेरी, यह मातृभूमि मेरी।। मातृभूमि मेरी कविता का शब्दार्थ  सिंधु - सागर। त्रिवेणी - तीन नदियों का संगम। अमराइयां -- आम के बगीचे। नव - नया। सुयश - अच्छा यश। जग - संसार। मातृभूमि मेरी कविता का भावार्थ  मातृभूमि मेरी कविता में स्वर्ग - सी सुंदर भारत - भूमि  के प्राकृतिक एव

Phuta prabhat (poem) फूटा प्रभात कविता का भाव सौंदर्य, प्रश्न उत्तर

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  फूटा प्रभात ( कविता ) phuta prabhat poem summary, questions answers , phuta prabhat poem ke poet Bharat Bhushan Agarwal, फूटा प्रभात कविता का सप्रसंग व्याख्या  फूटा प्रभात कवि भारत भूषण अग्रवाल की प्रकृति चित्रण संबंधित रचना है। इस कविता में कवि ने सुबह सवेरे के प्राकृतिक सुषमा का सुंदर चित्रण किया है। यहां कविता , व्याख्या और प्रश्न उत्तर दिया गया है। फूटा प्रभात, फूटा विहान  बह चले रश्मि के प्राण, विहग के गान, मधुर निर्झर के स्वर  झर - झर , झर - झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज, मानो अंबर की सरसी में  फूला कोई रक्तिम गुलाब, रक्तिम सरसिज। धीरे-धीरे, लो, फैल चली आलोक रेख  घुल गया तिमिर, बह गयी निशा, चहुं ओर देख , धुल रही विभा, विमलाभ कांति। अब दिशा - दिशा  सस्मित  विस्मित खुल गये द्वार , हंस रही उषा। खुल गये द्वार, दृग खुले कंठ  खुल गये मुकुल  शतदल के शीतल कोषों से निकला मधुकर गुंजार लिये खुल गये बंध, छवि के बंधन। जागी जगती के सुप्त बाल! पलकों की पंखुड़ियां खोलो, खोलो मधुकर के आलस बंध  दृग भर  समेट तो लो यह श्री, यह कांति  बही आती दिगंत से यह छवि की सरिता अमंद  झर - झर - झर । फूटा प्रभात

कर्मवीर कविता , कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

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पत्ते से सीखो ( कहानी )   कर्मवीर कविता, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध , कर्मवीर कविता का भावार्थ और प्रश्न उत्तर  देखकर बांधा विविध बहुत विघ्न घबराते नहीं   रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं  काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं  भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं  हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।। आज करना है जिसे करते उसे है आज ही  सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही  मानते जो कि है सुनते हैं सदा सबकी कहीं जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही  भूल कर वे दूसरों का मुंह कभी तकते नहीं  कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।। जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं  काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं  आज़ कल करते हुए जो दिन गंवाते हैं नहीं, यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं  बात है वह कौन जो होते नहीं उनके लिए  वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।। व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर, वे घने जंगल जहां रहता है तम आठो पहर  गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊंची लहर  आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट  ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को

पत्ते से सीख patte se seekha ( प्रेरणा दायक कहानी ) Patte se sikh

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                     पत्ते से सीख        ( प्रेरणा दायक कहानी )             Patte se sikh गंगा नदी के किनारे पीपल का एक पेड़ था। पहाड़ों से उतरती गंगा पूरे वेग से बह रही थी। तभी अचानक नदी किनारे खड़े पेड़ से दो पत्ते नदी में आ गिरे। एक पत्ता अड़ गया, कहने लगा चाहे जो हो मैं इस नदी को रोक कर ही रहूंगा चाहे मेरी जान ही  क्यों ना चली जाए । मैं इसे आगे नहीं बढ़ने दूंगा।  वह जोर जोर से चिल्लाने लगा। रूक जा गंगा। अब तू और आगे नहीं बढ़ सकती। मैं तूझे यहीं रोक दूंगा। । परंतु नदी बहती ही जा रही थी। उसे तो पता भी नहीं था कि कोई पत्ता उसे रोकने की कोशिश कर रहा है। पत्ते की जान पर बन आई थी। वह लगातार कोशिश कर रहा था। वह नहीं जानता था कि वह बिना  लड़कर भी वही पहुचेगा, जहां लड़कर, थककर, हारकर पहुंचेगा। दूसरा पत्ता नदी के प्रवाह के साथ बड़े मजे से बहता जा रहा था। यह कहता हुआ कि ' चल गंगा , आज मैं तुझे तेरे गंतव्य तक पहुंचाकर ही दम लूंगा। चाहे जो हो जाए, मैं तेरे मार्ग में कोई बाधा नहीं आने दूंगा। मैं तूझे सागर तक पहुंचा ही दूंगा।  नदी को इस पत्ते का भी कुछ पता नहीं था। वह तो अपनी ही धुन में सागर

हिमालय , कविता, कक्षा दूसरी

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  हिमालय , कविता, कक्षा दूसरी  Himalaya poem  खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी - पानी में। डटे रहो सब अपने पथ में, कठिनाई तूफानों में।। डिगो न अपने पथ पर से तो सब कुछ पा सकते प्यारे। तुम भी ऊंचे बन सकते हो, छू सकते नभ के तारे।। अटल रहा जो अपने पथ पर लाख मुशिबत आने पर। मिली सफलता उसको जग में, जीने में, मर जाने में।। जितनी भी बाधाएं आईं, उन सबसे तो लड़ा हिमालय। इसलिए तो दुनिया भर में, सबसे बड़ा हुआ हिमालय।। पत्ते से सीखो ( कहानी  क्लिक करें और पढ़ें  हिमालय कविता का भावार्थ  कविता 'हिमालय ' में कवि संघर्ष और लगातार काम करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि , हिमालय की तरह अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहो। किसी आंधी तूफान से नहीं डरो। लगातार संघर्ष से ही मनुष्य आसमान की बुलंदियों को छू सकता है। जो अपने पथ पर हिमालय की तरह अटल रहेगा वही सफलता का स्वाद चख सकेगा।  हिमालय सदियों से भारत का प्रहरी रहा है। यह पर्वतों का राजा है और सालों भर इसकी चोटियां सफेद बर्फ से ढकी रहती है। हमें भी हिमालय की तरह अपने कार्य पर डटे रहना चाहिए।

कूके लगी कोइलें कदंबन पर बैठि फेरी

  कूके लगी कोइलें कदंबन पर बैठि फेरी , कविता , भावार्थ , व्याख्या, प्रश्न उत्तर  Kuke lagi koylen  poem कूके लगी कोइलें कदंबन पर बैठि फेरी धोएं -  धोए पात हिलि - हिलि सरसे लगे। बोले लगे दादुर मयूर लगे नाचे फेरी  देखि कै संजोगी जन हिय हरसे लगे।। हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी लिख ' हरिचंद ' फेर प्राण तरसै लगे । फेरी झूमि - झूमि बरसा की ऋतु आई फेरी बादर निगोरे झुकी - झुकी बरसे लगे।। कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र  कविता का भावार्थ और व्याख्या  प्रस्तुत कविता में कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रकृति का सुन्दर चित्रण करते हुए कहते हैं, वर्षा ऋतु के आने से कदंब के वृक्ष लताओं पर फिर से कोयलें कूकने लगी। ग्रीष्म ऋतु के धूल भरे थपेड़ों से मटमैले तरू पात वर्षा की बूंदों से धुलकर चमकने लगी हैं। दादुर मोर बोलने लगे, इस सुन्दर सुहावनी दृश्य से संयोगी जन अर्थात जिनके प्रियतम पास हैं, उनका हृदय प्रफुल्लित हो गया है। कवि आगे लिखते हैं ,- वर्षा ऋतु में धरती हरी - भरी हो गई। शीतल हवाएं चलने लगी। कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कहते हैं, विरहिणी के मन तरसने लगे। फिर वर्षा ऋतु आई है। बादल फिर बरसने लगे। 

कौन पार फिर पहुंचाएगा, कविता, महादेवी वर्मा, kaun par phir pahuchaega

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  कौन पार फिर पहुंचाएगा, कविता, महादेवी वर्मा, kaun par phir pahuchaega टकराएगा नहीं आज उद्धत लहरों से, कौन ज्वार फिर तुझे पार तक पहुंचाएगा ? अब तक धरती अचल रही पैरों के नीचे, फूलों की दे ओट सुरभि के घेरे खींचे, पर पहुंचेगा पंथी दूसरे तट पर उस दिन, जब चरणों के नीचे सागर लहराएगा। गर्त शिखर बन , उठे लिए भंवरों का मेला, हुए पिघल ज्योतिष्क तिमिर की निश्छल बेला, तू मोती के द्वीप स्वप्न में रहा खोजता, तब तो बहता समय शिला - सा जम जाएगा, लौ से दीप्त देव - प्रतिमा की उज्ज्वल आंखें, किरणें बनी पुजारी के हित वर की पांखें, वज्र शिला पर गढ़ी ध्वशं की रेखाएं क्या ?, यह अंगारक हास नहीं पिघला पाएगा। धूल पोंछ कांटे मत गिन छाले मत सहला मत ठंडे संकल्प आंसुओ से तू बहला, तुझसे हो यदि अग्नि - स्नात यह प्रलय महोत्सव तभी मरण का स्वस्ति - गान जीवन गाएगा टकराएगा नहीं आज उन्मद लहरों से कौन ज्वार फिर तुझे दिवस तक पहुंचाएगा कवयित्री - महादेवी वर्मा